प्राकृतिक संसार ऐसी विभीषिकाओं से भरा है जो हमें ये सोचने के स्वप्न-संसार से जगाने का लक्ष्य रखते हैं कि परमेश्वर को अप्रतिष्ठित करना कोई बड़ी बात नहीं है।
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काश, हम सब देख सकते और महसूस कर सकते कि हमारे ‘बनानेवाले' से बढ़कर किसी भी चीज को अधिक महत्व देना, ‘उसे' अनदेखा करना और ‘उसे' अविश्वास करना और ‘उसे' अप्रतिष्ठित करना और हमारे बैठक के कमरे के फर्श पर के गलीचे की तुलना में, अपने हृदयों में ‘उसे' कम ध्यान देना, कितना प्रतिकूल, कितना अपमानजनक, कितना घृणित है।